अंध श्रद्धा भक्ति क्या है?
अंध श्रद्धा का अर्थ है बिना विचार-विवेक के किसी भी प्रभु में आस्था करके उसकी प्राप्ति की तड़फ में पूजा में लीन हो जाना। फिर अपनी साधना से हटकर शास्त्र प्रमाणित भक्ति को भी स्वीकार न करना। दूसरे शब्दों में प्रभु भक्ति
में अंधविश्वास को ही आधार मानना।
श्रद्धालु का उद्देश्य परमात्मा की भक्ति करके उसके गुणों का लाभ पाना होता है। श्रद्धालु अपने धर्म के शास्त्रों को सत्य मानता है। यह भी मानता है कि हमारे धर्मगुरू हमें जो साधना जिस भी ईष्ट देव की करने को कह रहे हैं, वे साधना शास्त्रों से ही बता रहे हैं क्योंकि गुरुजी रह-रहकर कभी गीता
को आधार बताकर,
कभी शिवपुराण, विष्णुपुराण, देवीपुराण, कभी-कभी चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद,
सामवेद तथा अथर्ववेद) में से किसी एक या दो वेदों का हवाला देकर अपने द्वारा बताई भक्ति विधि को शास्त्रोक्त सिद्ध करते हैं। श्रद्धालुओं को पूर्ण विश्वास होता है कि जो साधना अपने धर्म के व्यक्ति कर रहे हैं वह सत्य है।
जब वह अपने धर्म के व्यक्तियों को जैसी भी भक्ति-साधना करते हुए देखता है तो वह निसंशय हो जाता है कि ये सब वर्षों से
करते आ रहे हैं, यह साधना सत्य है। वह भी उसी पूजा-पाठ को करने लग जाता है। आयु बीत जाती है।
अंध श्रद्धा भक्ति :- एक-दूसरे को देखकर की जा रही भक्ति यदि शास्त्रोक्त (शास्त्र प्रमाणित) नहीं है तो वह अंधविश्वास यानि अंध श्रद्धा भक्ति मानी जाती है।
जो ज्ञान शास्त्रों के अनुसार नहीं होता, उसको सुन-सुनाकर या देखकर उसी के आधार से साधना करते रहना। वह साधना जो शास्त्रों के विपरीत है, बहुत हानिकारक है उससे अनमोल मानव जीवन नष्ट हो जाता है। जो भक्ति साधना शास्त्रों में प्रमाणित नहीं है,
उसे करना तो ऐसा है जैसे आत्महत्या कर ली हो। आत्महत्या करना महापाप है। इससे अनमोल मानव जीवन नष्ट हो जाता है।
इसी प्रकार शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करना यानि अज्ञान अंधकार के कारण अंध श्रद्धा के आधार से भक्ति करने वाले का अनमोल मानव जीवन नष्ट हो जाता है क्योंकि पवित्र श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में बताया है कि :-
जो साधक शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है यानि किसी को देखकर या किसी के कहने से भक्ति साधना करता है तो उसको न तो कोई सुख प्राप्त होता है, न कोई सिद्धि यानि भक्ति की शक्ति प्राप्त होती है, न उसकी गति होती है।
जो साधक शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है यानि किसी को देखकर या किसी के कहने से भक्ति साधना करता है तो उसको न तो कोई सुख प्राप्त होता है, न कोई सिद्धि यानि भक्ति की शक्ति प्राप्त होती है, न उसकी गति होती है।
शास्त्र विरुद्ध भक्ति कौनसी होती है।
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जिस भक्ति साधना का प्रमाण पवित्र गीता जी और वेदों में नहीं है वह शास्त्र विरुद्ध अंध भक्ति तथा पाखंड पूजा है। जैसे 👇
एक पूर्ण परमेश्वर को छोड़कर ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य देवी देवताओं की पूजा ईष्ट रूप में करना, मूर्ति पूजा करना, तीर्थ और धामों पर मोक्ष उद्देश्य से जाना, कांवड लाना, गंगा स्नान करना, श्राद्ध, पिंडदान, तेरहवी करना, व्रत करना ये सब शास्त्र विरुद्ध भक्ति साधना है।
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जिस भक्ति साधना का प्रमाण पवित्र गीता जी और वेदों में नहीं है वह शास्त्र विरुद्ध अंध भक्ति तथा पाखंड पूजा है। जैसे 👇
एक पूर्ण परमेश्वर को छोड़कर ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य देवी देवताओं की पूजा ईष्ट रूप में करना, मूर्ति पूजा करना, तीर्थ और धामों पर मोक्ष उद्देश्य से जाना, कांवड लाना, गंगा स्नान करना, श्राद्ध, पिंडदान, तेरहवी करना, व्रत करना ये सब शास्त्र विरुद्ध भक्ति साधना है।
गीता अध्याय 16 श्लोक 24 :– इसमें स्पष्ट किया है कि ‘‘इससे तेरे लिए अर्जुन! कर्तव्य यानि जो भक्ति क्रियाऐं करनी चाहिए तथा अकर्तव्य यानि जो भक्ति क्रियाऐं नहीं करनी चाहिए, की व्यवस्था में शास्त्रों में वर्णित भक्ति क्रियाऐं ही प्रमाण हैं यानि शास्त्रों में बताई साधना कर। जो शास्त्र विपरीत साधना कर रहे हो, उसे तुरंत त्याग दो।’’
शास्त्रनुसार सतभक्ति जानने के लिए अवश्य देखें तत्वज्ञान सत्संग–
“साधना चैनल” प्रतिदिन रात 7:30 से 8:30 बजे।
“ईश्वर चैनल” प्रतिदिन रात 8:30 से 9:30 बजे।